Friday, October 1, 2010

निवाले की हकीकत


                           निवाले की हकीकत
मैं रोज की तरह सुबह उठकर कॉलेज जा रहा था | सर्दी में सुबह जल्दी क्लास होने कि वजह से मुझे बस का इन्तजार करने लगा | इतने में एक अधेड उम्र का आदमी फटी चद्दर ओढ़े आ खड़ा हुआ | देखने में काफी हष्ट-पुष्ट मगर मलिन था | लग रहा था कि कई रोज से नहीं नहाया हो | उसकी ढाढी–मूंछे बढ़ी हुई थी और चेहरा डरावना लग रहा था | मेरे अलावा स्टॉप पर दो-तीन लोग और भी थे | जो उसी को घूर रहे थे | वो स्टॉप पर ही झुककर कुछ बटोरने लगा | वो बटोरी वस्तु को झाड-झाडकर बिना चबाये ही  निगलने लगा |
तकरीबन पांच-सात मिनट यही सिलसिला चलता रहा | स्टॉप पर मौजूद लोग उसी को ताक रहे थे | वो कहीं से भी पागल या सरफिरा नहीं लग रहा था | अपनी आग को शांत करके वो धीरे-धीरे कोहरे में गुम हो गया |
उसके जाने के बाद लोगों ने उस जगह जाकर देखा कि वो क्या बटोरकर खा रहा था | देखने पर मालूम हुआ कि वो पिछली रात के बासी बचे पकोडे और ब्रेड के टुकड़े उठा-उठाकर निगल रहा था | जोकि रेत में से सने थे | इसलिए उनको झाड-झाडकर निगल रहा था | इस जगह दिन में रोजाना चाय-नाश्ते और खाने की रेहड़ी लगती थी |
इतने में सामने से बस आ गयी | मौजूद लोग उसी बस में चढ़ लिए | बस में भी वो लोग उस अधेड उम्र के आदमी की ही चर्चा कर रहे थे |  गरीबी और बेरोजगारी का मारा अपने पेट की आग बुझाने की खातिर क्या-कुछ खाने को मजबूर हो गया| उसके यह मजबूरी ही उसके लिए निवाले की हकीकत बन बैठी थी |