निवाले की हकीकत
मैं रोज की तरह सुबह उठकर कॉलेज जा रहा था | सर्दी में सुबह जल्दी क्लास होने कि वजह से मुझे बस का इन्तजार करने लगा | इतने में एक अधेड उम्र का आदमी फटी चद्दर ओढ़े आ खड़ा हुआ | देखने में काफी हष्ट-पुष्ट मगर मलिन था | लग रहा था कि कई रोज से नहीं नहाया हो | उसकी ढाढी–मूंछे बढ़ी हुई थी और चेहरा डरावना लग रहा था | मेरे अलावा स्टॉप पर दो-तीन लोग और भी थे | जो उसी को घूर रहे थे | वो स्टॉप पर ही झुककर कुछ बटोरने लगा | वो बटोरी वस्तु को झाड-झाडकर बिना चबाये ही निगलने लगा |
तकरीबन पांच-सात मिनट यही सिलसिला चलता रहा | स्टॉप पर मौजूद लोग उसी को ताक रहे थे | वो कहीं से भी पागल या सरफिरा नहीं लग रहा था | अपनी आग को शांत करके वो धीरे-धीरे कोहरे में गुम हो गया |
उसके जाने के बाद लोगों ने उस जगह जाकर देखा कि वो क्या बटोरकर खा रहा था | देखने पर मालूम हुआ कि वो पिछली रात के बासी बचे पकोडे और ब्रेड के टुकड़े उठा-उठाकर निगल रहा था | जोकि रेत में से सने थे | इसलिए उनको झाड-झाडकर निगल रहा था | इस जगह दिन में रोजाना चाय-नाश्ते और खाने की रेहड़ी लगती थी |
इतने में सामने से बस आ गयी | मौजूद लोग उसी बस में चढ़ लिए | बस में भी वो लोग उस अधेड उम्र के आदमी की ही चर्चा कर रहे थे | गरीबी और बेरोजगारी का मारा अपने पेट की आग बुझाने की खातिर क्या-कुछ खाने को मजबूर हो गया| उसके यह मजबूरी ही उसके लिए निवाले की हकीकत बन बैठी थी |
colourful....
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट , शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteहिन्दी ब्लाग लेखन के लिये बधाई! आभार!
ReplyDeleteमानवीय सोच - हमारी नीतियों और व्यवस्था में बहुत खामियां है
ReplyDeleteआज हमारा देश महाशक्ति बनने की राह पर तेजी से दौड रहा है लेकिन इस सब से अलग एक दूसरा सच भी है लोग को भर पेट भोजन नहीं मिलता है स्वच्छ पानी नहीं मिलता लेकिन हम दम भरते हैं की हमने इतने की विकास दर हासिल कर ली लेकिन यह उस भूखे गरीब के लिए नहीं होती है बल्कि यह उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है जो भूखा नहीं है गरीब नहीं है ...........
ReplyDeleteआपने एक सही और सच्ची बात सामने राखी है .........
yahi sach hai dinesh.... bahut achha likha aam jeevan ke sach ko pakadkar....
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