Saturday, November 6, 2010

ये व्यापार नगरी, मेरे भाई

ये व्यापार नगरी, मेरे भाई
ये व्यापारनगरी
कोई ख्वाब बेचता
कोई कीमती राज बेचता

रह-रहकर मन में सवाल उठ रहा
क्या कोई यहाँ गरीबी का
भूखमरी का इलाज बेचता
उसका जवाब बेचता

हाड बेचता, मांस बेचता
जिस्मफरोशी का सामन बेचता
जवानी में बुढ़ापे के औजार बेचता
तो कोई यहाँ
बचपन को बुढ़ापे के दाम बेचता
भरे बाजार बेचता

हथियार बेचता,
खून बहाने के तमाम
साजो-सामान बेचता
खुलेआम बेचता
सरेबाजार बेचता

शायद कोई नहीं बचा यहाँ
जो अहसास की सौगात बेचता
भावनाओं की बयार बेचता

हर कोई यहाँ अपना
ईमान बेचता,
स्वाभिमान बेचता
हर बार नहीं,
तो कभी-कबार बेचता

3 comments:

  1. शायद आप ने श्री 420 फिल्म देखी हो भाई ....
    उसमे राजकपूर ने अपना ईमान बेंच कर कुछ चंद कागजी नोट इकट्ठे किये थे आज का दौर उस दौड में बेतहासा भागे जा रहें हैं उसकी यह रफ़्तार उसे एक दिन उसे खुद अपने खिलाफ ला खड़ा करेगी तब बहुत देर हो चुकी होगी .....
    धन्यवाद एक अच्छी सच्ची कविता के लिए ........

    http://nithallekimazlis.blogspot.com/

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  2. अपने इस कविता के माध्यम से आज के समाज को आइना दिखाने की कोशिश की है इस कविता को पढ़कर यदि समाज के एक भी व्यक्ति के आचरण मै सुधार आया तो ये एक सार्थक पहल होगी.
    अच्छी कविता के लिए आपको धन्यवाद

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  3. आधुनिक समाज की वास्तविकताओ को बेहतरीन तरीके से कविता के माध्यम से बयान किया गया है ॥
    जब लोग अपना ईमान तक बेच रहे है तो बाकी क्या कहे॥ जमीनी हकीकत साफ़ तौर से कविता मे दिखलायी पदती है ॥

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