Sunday, December 5, 2010

सर्दी की एक रात, नवंबर का महीना, हल्का कोहरा.........

                    
सर्दी की एक रात, नवंबर का महीना, हल्का कोहरा|
अखबार का काम खत्म करके मैं देर रात करीबन पौने बारह बजे घर लौट रहा था| जैसे-तैसे मुझे बस मिल गई थी| अपने नियत स्टॉप पर मैं जब उतरा तो साथ ही आँखों से लाचार व्यक्ति भी उतरा| मेरा ध्यान उसकी ओर गया उसने मुझसे पूछा कि नांगलोई का स्टॉप यही है क्या ? मैंने उत्तर दिया कि वह तो दो स्टॉप पहले ही छूट गया| देखने में एकदम दुबला पतला था वो आदमी, उम्र तकरीबन 40-45 की रही होगी| सर्दी की इस रात में उसके कपडे, उसकी गरीबी और लाचारी बयां कर रहे थे| आधी बांह की मैली-कुचैली कमीज| पतलून , पतलून कम पजामा लग रही थी| कमीज और पतलून दोनों पर सिलवटें पड़ी हुई थी और  मारे सर्दी के वो काँप रहा था| तब उसने मुझसे अपनी रद्दी डायरी में से एक नम्बर लगाने का आग्रह किया| नंबर किसी उसके परिचित का था| मेरे मोबाईल में बैलेंस बिल्कुल खत्म हो चुका था मैं धर्म संकट में था कि उसकी मदद करूँ तो कैसे करूँ ? बस आनी इस वक्त एकदम बंद हो चुकी थी उसके पास अपने परिचित का पता तक नहीं था एसटीडी के सभी बूथ कब के बंद  हो चुके थे| बातचीत  के दौरान उसने बताया कि उसके पास ना रहने को है ना खाने को| मैंने उससे पूछा कि बगैर पते के जाओगे कहाँ ? 
उत्तर मिला - कि फोन कर लूँगा !
मैंने कहा - कि अगर फोन खराब हो या स्विच ऑफ हो तब !
उसकी चुप्पी में उसका उत्तर  छुपा हुआ था !
मैंने पूछा - कि इतनी देर रात आये ही क्यूँ ?
मुझे बुलाया तो दिन में ही था मगर दिन में आ ना सका !
मैंने कहा अगर दिन में आये होते तो एसटीडी के भी खुले रहते और लोग भी मदद के लिए रहते!
इस  वक्त सुनसान रोड पर केवल हम दोनों ही थे ना कोई रिक्शा ही था ना ही ऑटो था| कि उसको उसके गंतव्य तक पहुचने का बंदोबस्त किया जा सके| मैंने उसे समझाया कि आगे से किसी जगह पर जाना हो तो पहले से ही जगह का पूरा पता और फोन नम्बर लेकर चले| 
हमारी रुक रुक कर होने वाली बातचीत खत्म भी नहीं हुई थी कि अचानक एक बस आ पहुंची मैंने उसे बस में बिठा कर कंडक्टर से उसे नांगलोई उतरने को कह दिया| केवल मैं इतनी ही मदद उसकी कर सका| बस जाते ही मैंने अपने घर की ओर रुख किया लेकिन कई दिनों तक उसका लाचारी भरा चेहरा मेरी आँखों के सामने आता रहा|

4 comments:

  1. दिनेश जी, भावुक व्यक्ति (मेरे जैसे की भी) की यही तो कमी होती है. जब वक्त निकल जाता है.... उसके बाद बैठ कर माथा-पच्ची करते रहते हैं.

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  2. आप ने बेहद जीवंत घटना का बयां किया है|
    इस तरह की घटनाएँ होती तो हर रोज है लेकिन हमारी नज़र कभी कभार ही पड़ती है यह घटना मानवीय संवेदनाओ को झकझोर जाती है|
    सधन्यवाद .........

    http://nithallekimazlis.blogspot.com/

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  3. यह वर्णन उन सभी व्यक्तियों की लाचारी बयां करता है जो जीवन जीने के लिए नहीं बल्कि उसे काटने के लिए जी रहे हैं....

    सुन्दर आलेख
    मुबारक हो..

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  4. आपने ना जाने कितने लोगो के भावनाओ को शब्दों के माला में खूबसूरती से पिरो दिया.
    उत्तम प्रयास,इसे जारी रखियेगा.

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